रेहान और युग
अपने काम से कीमती समय निकाल कर मैं अपने मित्रों के साथ रोज़ फेस्टिवल देखने गया। हमे पिछले दो सालों से इंतजार था इस दिन का की हम मेले में झूला झूलने जाएंगे आखिरकार आज वह दिन आ ही गया। रोज़ वैली में लगे इस मेले में जब दाखिल हुआ तो वहाँ लोग खचा-खच भरे हुए थे ठीक से पाव रखने की जगह नहीं थी मगर इसी भीड़ का सहारा लेकर दो दिल आपस मे मिल रहे थे तो कहि अपने बच्चों के साथ पिता हँसी-ठिठौली करने में व्यस्त था तो कही दो भाई सूफी गायक सतिंदर सरताज के गीतों पर भंगड़ा डालने में व्यस्त दिखे।
रोज़ फेस्टिवल
इन्हीं भीड़ में हमे दूर से झूला दिखाई दिया और झूले को देखते ही हमारे कदम इस भीड़ को चीड़ते हुए आगे बढ़ने लगे और लाइन में खड़े होकर हमने जल्दी से झूले की टिकट्स ले ली और इंतजार करते रहे अपनी बारी के आने का। दो साल की बेसब्री अब टूटने लगी थी और झूले पर बैठेने को बस शरीर भगा जा रहा था । एकतरफ सरताज के सूफी गीत थे और दूसरी तरफ इस झूले से आती हुए चिलाने की आवाजें मानो आपस मे मिलकर एक नई धुन बना रही हो। खेर इन्ही बातो को सोचते हुए ही हमे मौका मिला झूले पर बैठने का क्योंकि झूले में चार लोगों की बैठने की जगह थी तो हम सिर्फ तीन थे ऐसे में झूले वाले भईया ने दो छोटे-छोटे बच्चों को मेरे साथ बैठा दिया। मेरी एक तरफ था रेहान ओर दूसरी ओर था उसका बड़ा भाई युग मैं दोनो के बीच मे बैठ गया। एक पल के लिए मैंने सोचा कि शायद इनके साथ इनके माँ-बाप होंगे मगर यह बच्चें अकेले ही झूला झूलने के लिए आये थे। हम इतने बड़े होकर भी झूले पर बैठने से डरते है वही यह बच्चें बिना किसी डर के अकेले ही झूले पर आ गए। खेर जब झूला चलना शुरू हुआ तो हम सभी डरने लगे और चीख़ने भी लगे मगर इन दोनों भईयों के चेहरे पर कोई डर नही दिख रहा था। इन्हें देख कर ऐसा लग रहा था कि यह इस झूले के ड्राइवर है जिसे आदत लग गयी हैं इस तरह की सैर की। जब मैंने छोटे रेहान से उसकी क्लास पूछी तो उसने बताया कि मैं अभी दूसरी क्लास में पढ़ता हूँ और मैं बहुत बार झूलों पर बैठा हूँ मगर मुझे कभी डर नही लगा। वही हम इतने बड़े होकर भी डर रहे थे ।
रेहान और युग
उसके इस जवाब को सुनकर एक ख्याल आया कि अगर हमने भी बचपन से ही इस तरह के झूलो पर चढ़े रहते तो शायद आज हम भी नही डरते।
इस बात से मुझे लगा कि हमे अपने बच्चों को बचपन से ही उस तरह की शिक्षा देनी चाहिए ताकि किसी भी प्रकार की आपात परिस्थितियों में वह निडर होकर लड़ सके।
रोज़ फेस्टिवल
इन्हीं भीड़ में हमे दूर से झूला दिखाई दिया और झूले को देखते ही हमारे कदम इस भीड़ को चीड़ते हुए आगे बढ़ने लगे और लाइन में खड़े होकर हमने जल्दी से झूले की टिकट्स ले ली और इंतजार करते रहे अपनी बारी के आने का। दो साल की बेसब्री अब टूटने लगी थी और झूले पर बैठेने को बस शरीर भगा जा रहा था । एकतरफ सरताज के सूफी गीत थे और दूसरी तरफ इस झूले से आती हुए चिलाने की आवाजें मानो आपस मे मिलकर एक नई धुन बना रही हो। खेर इन्ही बातो को सोचते हुए ही हमे मौका मिला झूले पर बैठने का क्योंकि झूले में चार लोगों की बैठने की जगह थी तो हम सिर्फ तीन थे ऐसे में झूले वाले भईया ने दो छोटे-छोटे बच्चों को मेरे साथ बैठा दिया। मेरी एक तरफ था रेहान ओर दूसरी ओर था उसका बड़ा भाई युग मैं दोनो के बीच मे बैठ गया। एक पल के लिए मैंने सोचा कि शायद इनके साथ इनके माँ-बाप होंगे मगर यह बच्चें अकेले ही झूला झूलने के लिए आये थे। हम इतने बड़े होकर भी झूले पर बैठने से डरते है वही यह बच्चें बिना किसी डर के अकेले ही झूले पर आ गए। खेर जब झूला चलना शुरू हुआ तो हम सभी डरने लगे और चीख़ने भी लगे मगर इन दोनों भईयों के चेहरे पर कोई डर नही दिख रहा था। इन्हें देख कर ऐसा लग रहा था कि यह इस झूले के ड्राइवर है जिसे आदत लग गयी हैं इस तरह की सैर की। जब मैंने छोटे रेहान से उसकी क्लास पूछी तो उसने बताया कि मैं अभी दूसरी क्लास में पढ़ता हूँ और मैं बहुत बार झूलों पर बैठा हूँ मगर मुझे कभी डर नही लगा। वही हम इतने बड़े होकर भी डर रहे थे ।
रेहान और युग
उसके इस जवाब को सुनकर एक ख्याल आया कि अगर हमने भी बचपन से ही इस तरह के झूलो पर चढ़े रहते तो शायद आज हम भी नही डरते।
इस बात से मुझे लगा कि हमे अपने बच्चों को बचपन से ही उस तरह की शिक्षा देनी चाहिए ताकि किसी भी प्रकार की आपात परिस्थितियों में वह निडर होकर लड़ सके।
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